पुष्यमित्र
आज बत्तख मियां याद आते हैं. वैसे तो आज गांधी को याद करने का दिन है. आज ही दिल्ली के बिरला हाउस में गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी. उस रोज बिरला हाउस में बत्तख मियां नहीं थे. होते भी तो गांधी को बचा पाते या नहीं, कहना मुश्किल है. बत्तख मियां उस रोज चंपारण के अपने गांव अकवा परसौनी में थे. उस रोज बिरला हाउस में नाथूराम गोडसे थे और उनके साथी थे. जिन्होंने गांधी पर गोली चलाई और गांधी की मौत हो गयी. मगर ठीक 31 साल पहले जब गांधी एक अंगरेज की कोठी में डिनर कर रहे थे तो बत्तख मियां के हाथ में सूप का कटोरा था, सूप में जहर मिला हुआ था. बत्तख मियां ने सूप का कटोरा तो गांधी को थमा दिया मगर साथ ही यह भी कह दिया कि इसे न पियें, इसमें जहर मिला है.
आज तारीख गांधी को याद करती है, गोडसे को याद रखती है, मगर बत्तख मियां लगभग गुमनाम ही हैं. इस लोकोक्ति के बावजूद कि ‘बचाने वाला मारने वाले से बड़ा होता है.’ मारने वाले का नाम हर किसी को याद है, बचाने वाले को कम लोग ही जानते हैं.
बत्तख मियां, जैसा नाम से ही जाहिर है. मियां जी थे. मोतिहारी नील कोठी में खानसामा का काम करते थे. यह 1917 की बात है. उन दिनों गांधी नील किसानों की परेशानियों को समझने के लिए चंपारण के इलाके में भटक रहे थे. एक रोज मोतिहारी कोठी के मैनेजर इर्विन से मिलने पहुंच गये.
उन दिनों भले ही देश के लिए गांधी बहुत बड़े नेता नहीं हुए थे, चंपारण के लोगों की निगाह में वे किसी मसीहा की तरह छा गये थे. नील किसानों को लगता था कि वे उनके इलाके से निलहे अंगरेजों को भगाकर ही दम लेंगे और यह बात नील प्लांटरों को खटकती थी. वे हर हाल में गांधी को चंपाऱण से भगाना चाहते थे.
गांधी जब इर्विन के यहां पहुंचे और डिनर के टेबुल पर उन्हें बिठाया गया तो इर्विन ने अपने खानसामा बत्तख मियां से कहा कि एक सूप की प्याली गांधी को सर्व करो. सूप में जहर मिला दो. अगर ऐसा किया तो हम मालामाल कर देंगे, अगर नहीं किया तो जिंदगी तबाह कर देंगे. बत्तख मियां जहर भरी प्याली लेकर गांधी के पास पहुंच तो गये, मगर उन्हें आगह भी कर दिया कि सूप न पियें, इसमें जहर मिला है.
जब इर्विन को पता चला कि बत्तख मियां ने धोखेबाजी की है, तो उसे परेशान करने का सिलसिला शुरू हो गया. उनकी जायदाद नीलाम कर दी गयी. बत्तख मियां के घर को श्मशान की तरह इस्तेमाल में लाया जाने लगा. उकताकर बत्तख मियां का परिवार सिसवा अजगरी गांव छोड़कर पश्चिमी चंपारण के अकवा परसौनी गांव में बस गया. बचाने वाले को बहुत कुछ भोगना पड़ता है.
अंगरेजों ने बत्तख मियां पर कहर ढाया, यह सामान्य सी बात थी. मगर आजाद भारत में भी बत्तख मियां या उनके परिवार को न उचित सम्मान मिला, न उचित मुआवजा. इसके बावजूद कि 1950 में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सार्वजनिक मंच से चंपाऱण के जिलाधिकारी से कहा था कि बत्तख मियां की संपत्ति अंगरेजों ने नीलम कर दी है, इन्हें कम से कम 50 बीघा जमीन दी जानी चाहिए. प्रशासन ने इस बात को अनुसुनी कर दी और उनके परिवार को महज छह एकड़ जमीन दी गयी, वह भी उनके घर से 110 किमी दूर एक जलजमाव वाले इलाके में. परिवार आज भी इस उम्मीद में है कि सौ साल बाद भी बत्तख मियां की कुरबानियों को सरकार सम्मान देगी.
सम्मान और मुआवजा देना सरकार का काम है. वहां दस तरह के दांव पेंच चलते हैं. मगर समाज का काम याद रखना और प्रेम प्रकट करना है. इस दौर में जब जात और महजब के नाम पर रोज नफरत की दीवार ऊंची की जा रही है. बत्तख मियां एक प्रतीक हो सकते हैं, जिनके जीवन से हम सीख ले सकते हैं. वही बत्तख मियां जिनकी कुरबानियों की वजह से गांधी को 31 साल और जीवन मिला और वे बेमिसाल 31 साल भारत की आजादी की लड़ाई के सबसे सुनहरे साल थे. काश, बिरला हाउस में भी कोई बत्तख मियां होता तो हमें आजाद भारत में गांधी के कुछ और सुनहरे साल भी मिलते.
(आज के प्रभात खबर में प्रकाशित)
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